ग़रीब की आरजू
ग़रीब की आरजू:
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क्या ग़रीब की आरजू,मांगे प्रभु से सुख और चैन,
महनत , ईमानदारी से काम करें, पर रहता है बेचैन।
कभी मांगती प्राण-प्रिया भी उससे गले का हार,
कभी दोनों बालक भी मांगे जन्मदिन का उपहार।
अपनी टिर्री ले कर वो सुबह ही निकल जाता है,
दोपहर को आ कर फ़िर वो दुपहर का खाना खाता है।
कभी तो पत्नी उसकी सिर्फ रोटी दाल बनाती है,
कभी सब्जी पसंदीदा उसकी मक्खन डाल बनाती है।
सबमे है संतोष उसे, नहीं चाहिए कोई पकवान,
सर झुका के खा लेता,बोलता रहता जय भगवान।
उसके दिल में आयी एक दिन क़ाश मकान पक्का होता,
न बारिश का कोई डर होता न चोरों का झंझट होता।
रात को चार घन्टें जा कर उसने स्टेशन पर जा काम किया,
जो भी अतिरिक्त आय होती डाकखाने में जमा कर देता था,
एक साल मे रक़म ये बढ़ कर साठ हज़ार हुयी,
दो साल काम किया उसने और रक़म एक लाख के पार हुयी ।
ख़ुश हो उसने घर मे अपने काम आरम्भ किया,
छै महीने में घर का कमरा एक तय्यार हुआ।
बहुत खुश था परिवार वो सारा,प्रभु ने उसकी सुन ली थी
एक साल मे प्रभु ने उसकी आरजू पुरी की थी।
आनन्द कुमार मित्तल, अलीगढ़
kashish
12-Nov-2023 11:08 AM
Nice
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Mohammed urooj khan
06-Nov-2023 12:20 PM
👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾
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Shashank मणि Yadava 'सनम'
03-Nov-2023 08:15 AM
सुन्दर सृजन
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